भटक रही हूँ मैं सहारे की तलाश में ......
.नदी सी बह रही हूँ, किनारे की आस में.......
.खो रही हूँ अँधेरे में.........
.रौशनी की तलाश में.......
खुद में ही उलझी हुई हूँ........
खुद की तलाश में............
भटक रही हूँ मैं सहारे की तलाश में ......
.नदी सी बह रही हूँ, किनारे की आस में.......
.खो रही हूँ अँधेरे में.........
.रौशनी की तलाश में.......
खुद में ही उलझी हुई हूँ........
खुद की तलाश में............
मंज़िल पे ध्यान
मंज़िल पे ध्यान हमने ज़रा भी अगर दिया,
आकाश ने डगर को उजालों से भर दिया।
रुकने की भूल हार का कारण न बन सकी,
चलने की धुन ने राह को आसान कर दिया।
पीपल की छाँव बुझ गई, तालाब सड़ गए,
किसने ये मेरे गाँव पे एहसान कर दिया।
घर, खेत, गाय, बैल, रक़म अब कहाँ रहे,
जो कुछ था सब निकाल के फसलों में भर दिया।
मंडी ने लूट लीं जवाँ फसलें किसान की,
क़र्ज़े ने ख़ुदकुशी की तरफ़ ध्यान कर दिया।
रिश्ते
रिश्तों को सीमाओं में नहीं बाँधा करते
उन्हें झूँठी परिभाषाओं में नहीं ढाला करते
उडनें दो इन्हें उन्मुक्त पँछियों की तरह
बहती हुई नदी की तरह
तलाश करनें दो इन्हें अपनी सीमाएं
खुद ही ढूँढ लेंगे उपमाएं
होनें दो वही जो क्षण कहे
सीमा वही हो जो मन कहे
आदमी यह सोचता है, काश अपने पंख होते,
तो गगन में उड़ रहे हम खग-सदृश निःशंक होते ।
आज जीवन में हमारे उलझनें जो आ पड़ीं हैं,
और यदि सामर्थ्य से लगने लगी विपदा बड़ी है ।
दीप यदि उम्मीद का , होकर विवश बुझने लगा है,
और मन का दीप्त कोना ज्योति से चुकने लगा है ।
नीति यह कहती नहीं है हारकर पथ छोड़ देना,
श्रेय है तब राह का हर एक पत्थर तोड़ देना ।
आदमी के सामने कोई विपद कबतक टिकेगा ?
यदि हिमालय भी खड़ा हो सामने, पल में मिटेगा ।
कर-द्वयों से तोड़ लाते तुम्हें ,
नभ के चाँद- तारोंसोच लो,
क्या कर गुजरते,
हाथ होते गर हज़ारों ।