Sunday, May 16, 2010





आदमी यह सोचता है, काश अपने पंख होते,


तो गगन में उड़ रहे हम खग-सदृश निःशंक होते ।


आज जीवन में हमारे उलझनें जो आ पड़ीं हैं,


और यदि सामर्थ्य से लगने लगी विपदा बड़ी है ।


दीप यदि उम्मीद का , होकर विवश बुझने लगा है,


और मन का दीप्त कोना ज्योति से चुकने लगा है ।


नीति यह कहती नहीं है हारकर पथ छोड़ देना,


श्रेय है तब राह का हर एक पत्थर तोड़ देना ।


आदमी के सामने कोई विपद कबतक टिकेगा ?


यदि हिमालय भी खड़ा हो सामने, पल में मिटेगा ।


कर-द्वयों से तोड़ लाते तुम्हें ,


नभ के चाँद- तारोंसोच लो,


क्या कर गुजरते,


हाथ होते गर हज़ारों ।

No comments:

Post a Comment