Tuesday, April 13, 2010

मेरा गाँव याद आ गया

मुझेमेरा गाँव याद आ गया

सुनते ही कागा की कर्त्तव्य पुकार दूर स्मृति के
क्षितिज में चित्रित- सा हर्ष -शोक के बीते जहाँ
वर्ष क्षण मेरा , मुझे मेरा वह गाँव याद आ गया
युग -युग से लुंठित दलित,क्षुधार्त्त,श्रम-बल से,जीवित
भू- खंड को बिछाकर आकाश ओढनेवाला सिहरकर
अमर जीवन के कंपन से अपने आप खिलने वाला
प्रभु-सेवक,मुझे मेरा गाँव का किसान याद आ गया

जग कंदर्प से पोषित , पदमर्दित भूख से पीड़ित
सहिष्णु, धीर ,अभय - चित्त , दादी याद आ गयी
दुख अग्नि के स्फुलिंगों को चूमने वाला,खोलकर
क्षितिज उर का वातायन, रंग -विरंगी आशा की
आभा को लाने वाला दादा याद आ गया देखा

जो घर के चौकठ को सूना, तो कमजोर
दुर्बल चपला -सी काँपती, छाया के पटल को
खोलकर, भावों की गहराई को निखारने वाली
धरती के उर से प्रकाश को छीन कर संतान के
जीवन भविष्य के अंधियारे में भरने वाली
अपनी मधुर वाणी से अंतर को झंकृत करती
आँखें नम चलने से लाचार , माँ याद आ गई

घर के भीतर झाँकी तो , दुख लपटों में लिपटी
भू पर बिछे अंगारों पर कदम बढाती , जीवन
अरुणोदय को आँचल में लिए प्रतिमा - सी सुंदर
सागर -सी गहरी आँखों वाली भाभी याद आ गयी
गोद में देखा तो, दीवार को चीरकर अपना स्वर
आजमाने वाली,नन्हीं-सी जान गुड़िया याद आ गयी

आँगन देखा तो तुलसी की गंध लिये
पुरवैया याद आ गयी , चौपाल में झाँका तो
टिम- टिम कर जल रहे दीपक की रोशनी
गाँव के बड़े-बूढे , पागुराती गायें या आ गयी
कान लगाकर सुना तो मंदिर से अग-जग को
भिगोने , पुजारिन के हिलोरे याद आ गयी
देखते – देखते , कितने दीप बुझे आँधी में
झाड़ी - झुरमुट में बताने संध्या पसर गयी

गाँव के बाहर खेतॉं के मुड़ेरों पर हल लिये बैठे
आकाश ताकते किसानों की मजबूरी याद आ गयी
माँ की ढीठ दुलार , पिता की लाजवंती ,भोली
उजियारी के हाथों की सूखी रोटी याद आ गयी
अमुआ की डाली से लटका विहग नीड़ याद आ गया
हर्ष -शोक बिताया जहाँ मेरा बचपन,जिस माटी में
खेलकर बड़ा हुआ,आज मुझे मेरा गाँव याद आ गया

कब खामोश कर दे दिल को ये हिचकì





कब खामोश कर दे दिल को ये हिचकì



कब खामोश कर दे दिल को ये हिचकियाँ, पता


कब लगे भिनभिनाने, मक्खियाँ क्या पता


हादसों का शहर है, हादसों से भरी है जिंदगी


कब चीखकर माँग उठे बैसाखियाँ,क्या पता


उड़ जा रे पक्षी शाख छोड़कर,बेदर्द जमाना


कब आ जाये पर कतरने लेकर कैंचियाँ,क्या पता


जीवन है एक नदिया,तुम सीख ले उसमें


तैरना कब तक मिलेगी माँ की थपकियाँ,क्या पता


मत देर कर,लगा ले उससे नेह,दुखों के सैलाब


में कब बह जाये कागज की ये किश्तियाँ, क्या पता



फ़ूल को शूल कहना



फ़ूल को शूल कहना,उसकी कोई तो लाचारी है


गहराई को न थाह पाना,जमाने की बीमारी


है शिकवा न शिकायत कोई,वादों का लेकर


सहारा शूली पर चढ़ जाना, इश्क़ की ख़ुद्दारी है


सब कुछ निसारे-राहे वफ़ा कर चुके हम


अब निगाहें कर्ज़, चुकाने की,यार की बारी


है जाने किस लिए उम्मीदवार बैठा हूँ मैं यहाँ


वहाँ जाने की तो कोई नहीं सवारी है


जब नजात मिली ग़म से, मिट गई कद्रें


जिंदगी की तब से, दुनिया की,क्या वफ़ादारी है






ये सोचना गल़त है


ये सोचना ग़लत है कि तुम पर नज़र नहीं,



मसरूफ़ हम बहुत हैं मगर बेख़बर नहीं।
अब तो खुद अपने खून ने भी साफ़ कह



दिया-मैं आपका रहूँगा मगर उम्र भर नहीं।
ही गए ख्व़ाब तो फिर जाएँगे कहाँ,


आँखों से आगे इनकी कोई रहगुज़र नहीं।
कितना जीएँ, कहाँ से जीएँ और किस लिए,


इख़्तियार हम पे है तक़दीर पर नहीं।
माज़ी की राख उल्टें तो चिंगारियाँ मिलें,


बेशक किसी को चाहो मगर इस क़दर नहीं।