Monday, February 1, 2010


प्रवाह



बनकर नदी जब बहा करूंगी,

तब क्या मुझे रोक पाओगे?

अपनी आँखों से कहा करूँगी,

तब क्या मुझे रोक पाओगे?

हर कथा रचोगे एक सीमा तकबनाओगे

पात्र नचाओगे मुझे

मेरी कतार काटकर

तुमएक भीड़ का हिस्सा बनाओगे

मुझेमेरी उड़ान

को व्यर्थ बताहंसोगे मुझपर,

टोकोगे मुझेएक तस्वीर बता,

दीवार पर चिपकाओगे मुझे।

पर जब ...

अपने ही जीवन से कुछ पल

चुराकरमैं चुपके से जी लूँ!

तब क्या मुझे रोक पाओगे?

तुम्हे सोता देख,

मैं अपने सपने सी लूँ!

अपनी कविता के कान भरूंगी,

तब क्या मुझे रोक पाओगे?

जितना सको प्रयास कर लो इसे रोकने की,

इसके प्रवाह का अन्दाज़ा तो मुझे भी नहीं अभी!

1 comment:

  1. अनु जी, आप इस कविता के साथ कवियत्री का नाम शायद लिखना भूल गईं या फिर आपको पता नहीं है. यह कविता अजन्ता शर्मा जी की बहुत हि चर्चित कविता है. कृपया अपनी को सुधार लीजिये और कवियत्री का नाम भी लिखिए. बिना नाम के तो ऐसा लगेगा कि जैसे आप ने दूसरे कि कविता अपने ब्लॉग पर किसी और मंशा से डाल रखा है.

    शुभ कामनाओं के साथ...

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