Monday, February 1, 2010


माँ की व्यथा

मेरी


सहीअनजानी नहीं

हैमुझ

जैसीहज़ारों नारियों

कीकहानी यही

हैजन्म से हीखुद

कोअबला

जानाजीवन के हर मोड़

परपरिजनों ने हीहेय

मानाथी कितनी प्रफुल्लित

मैंउस अनूठे अहसास सेरच बस रहा

था जबएक नन्हा अस्तित्वमेरी

सांसों की तार मेंप्रकृति के

हर स्वर मेंनया संगीत सुन रही

थीअपनी ही धुन मेंन जाने

कितनेस्वप्न बुन रही

थीलम्बी अमावस के

बादपूर्णिमा का चाँद

आयाएक नन्हीं सी कली नेमेरे

आंगन को सजायाआए

सभी मित्रगण,

सम्बन्धीकुछ के चहरे थे लटकेतो

कुछ के नेत्रों मेंआंसू

थे अटकेभांति भांति सेसभी

समझातेकभी देते सांत्वनातो

कभी पीठ थपथपातेकुछ

ने तो दबे शब्दों मेंयह

भी कह डालाघबराओ नहीं,

खुलेगा कभीतुम्हारी किस्मत का

भी तालालुप्त हुआ गौरवखो

गया आनन्दअनजानी पीड़ा

से यह सोचकरबोझिल हुआ मनक्या

हुआ अपराधजो ये सब मुझे कोसते

हैंदबे शब्दों मेंमन की

कटुता मेंमिश्री घोलते हैंकाश!

ममता में होता साहसमाँ

की व्यथा को शब्द मिल

जातेचीखकर

मेरी नन्हीं कली कासबसे

परिचय यूँ करातेन इसे हेय,

न अबला जानो'
खिलने दो खुशबू पहचानो'

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